खाण्डल विप्र (खण्डेलवाल ब्राह्मण) गोत्र -
१ माठोलिया
मठालय का माठोलिया रूप समय पाकर बना हुआ है। लोक में अन्य परिवर्तनों के समान शाब्दिक परिवर्तन भी होते रह्ते है, उसी अनुसार आरंभ का मठालय समय पाकर माठालया और फिर माठोलिया रुप में परिवर्तित हो गया।
२. बढाढरा
उच्छवृत्ति परायण ऋषियो में कन्दमूल खाने का जो प्रचलन था, उसके अनुसार ॠषि स्वेच्छानुसार कन्दमूल का चुनाव करते थे।
१ माठोलिया
मठ नमक स्थान में बैठकर जो जगदीश्वर का जप किया करता था, वह ब्राह्नण पृथ्वी पर मठालय (माठोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥मठ्मालयमासाध जाप जगदीश्वम ।अतो माठालयो भूमौ ब्राह्नणः ख्यातिमागतः ॥
मठालय का माठोलिया रूप समय पाकर बना हुआ है। लोक में अन्य परिवर्तनों के समान शाब्दिक परिवर्तन भी होते रह्ते है, उसी अनुसार आरंभ का मठालय समय पाकर माठालया और फिर माठोलिया रुप में परिवर्तित हो गया।
२. बढाढरा
वंटकोलं समाहत्य चाहारमनुकल्पयॅत ।बडवंटे (वरगद के फल) इकट्टे कर जो ॠषि भोजन करता था, उसे लोग वटाहार ( बढाढरा ) कहने लग गये ॥२॥
ततस्तस्य समाह्वानं वटाहारमिति क्षितौ ॥
उच्छवृत्ति परायण ऋषियो में कन्दमूल खाने का जो प्रचलन था, उसके अनुसार ॠषि स्वेच्छानुसार कन्दमूल का चुनाव करते थे।
३. श्रोत्रिय (सोती)
विप्रेभ्योपि ददौ धीमान वेदान साड्गाननुक्रमात ।जो बुद्धिमान विप्र छहो अंगो सहित अध्यापन द्वारा ब्रह्मणो को वेद ज्ञान प्रदान करता था वह श्रोत्रिय (सोती) के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
पाठयित्वा ततो विप्रः श्रोत्रियो विश्रुति गतः ॥
४. सामरा
देवैः सह सदा यस्य व्यवहारः प्रवर्तते ।जिस विप्र का लेनदेन देवताओ के साथ रहा करता था, वह स्वर्ग और पॄथ्वी मण्डल में सामर (सामरा) नाम से विख्यात हुआ ॥
सामरः स तु विख्यातः स्वर्गे वा क्षितिमंडले ॥
५. जोशी
ज्योतिर्विदाम्बरो धीरो यज्ञवैलां ददावथ ।ज्योतिर्विदो में जो विप्र यज्ञ वेला का मुहूर्त देने वाला था, वह देव विप्र सभाओं में ज्योतिषी (जोशी) के नाम से विख्यात हुआ
ज्योतिपीति समाख्यातो देवविप्रसभासु यः
एक दीर्घकाल से आर्य हिन्दू समाज में ज्योतिषियों के लिये जोशी शब्द का व्यवहार प्रचलित है। इसी आधार पर ज्योतिविंद अथवा ज्योतिष मर्मज्ञ का गोत (सासन या अवटंक) जोशी नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
६. रणवा
रणमुद्व्हते योऽसौ यज्ञध्नैदैत्यपुंगवैः ।जो यज्ञ नाशक दैत्य पुंगर्वो से युध्द कर यज्ञ की रक्षा करता था, वह ऋषि रणोद्वाही (रणवाद अथवा रणवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ
यज्ञसंरक्षणयैव रणोद्वाहीं प्रथां गतः ॥
ऋषि समाज में आत्मरक्षण के लिये शस्त्र ग्रहण करना उपयुक्त समझा जाता था। वह श्लोक इसकी पुष्टि करता है।
७. बीलवाल
सुपक्वानि च विल्वान यज्ञार्थ संहतानि च ।जो द्विजोत्तम पके हुए विल्व फल इकट्ठे कर यज्ञ के लिये लाया करता था, वह ब्रह्मणो में विल्वान (बीलवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥
विल्ववानथ स ख्यातो ब्राह्णाणेषु द्विजोत्तमः ॥
८. बील
विल्वमालाच शिरसि गले च भुजयोरपि ।जो सिर, गले और भुजाओं में विल्व की मालायें धारण करता तथा जो विल्व के नीचे बैठा करता था, वह इसी कारण विल्व (बील) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
विल्वमुले स्थितो योऽसौ तस्माद्विल्व इति श्रुतः ॥
९. कुँजवाड
लतागृह समाश्रित्य जजाप परमं जपः ।लतागृह में बैठकर जिसने उत्कृष्ट जप किया, वह ब्रह्म्वेत्ता ब्रह्म्ण कुन्जवाद (कुन्जवाड) नाम से विख्यात हुआ
कुज्वाडिति विख्यातो ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः ॥
ऋषि लोग प्रकृति प्रेमी होते थे । उनका बौद्धिक विकास प्रकृति के सानिध्य से ही होता था । वे लोग लता कुँजों में ही जीवन बिताते थे ।
१०. सेवदा
ररक्ष सेवधिं द्रव्यमृषीणां परमाज्ञया ।जो ऋषियों की आज्ञानुसार यज्ञीय धन की रक्षा किया करता था, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी पर सेवधि (सेवदा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
तस्मात्स सेवधिर्नामा विख्यातो भूवि ब्राह्मणः ॥
११. चोटिया
शिखा वृद्धतरा यस्य सर्वांगे लुलिता परा ।बडी भारी चोटी जिसके सारे शरीर पर पडी रहा करती थी, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी मंडल में चौल (चोटिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
तस्माच्चौल इति ख्यातो भूसुरो भुविमंडले ॥
१२. मणडगिरा
मणडमागिरते नित्यं दन्तहीनो द्विजोत्तमः ।जो द्विज श्रेष्ठ दन्त हीन होने के कारण प्रतिदिन चावलो का मांड पिया करता था, इसी कारण वह पृथ्वी मण्डल में मण्डगिल (मंडगिरा) नाम से विख्यात हुआ ॥
ततो मणडगिलः ख्यातः सर्वदा भुवि मंण्ड्ले ॥
१३. सुन्दरिया
सुन्दरस्तुन्दिलो योऽसौ त्रिवल्या परिशोभते ।जिस श्रेष्ठ ब्राह्म्ण की तोंद त्रिवली से सुशोभित थी वह उसी कारण पृथ्वी पर सुन्दर (सुन्दरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
तेनैव सुन्दरो भुमौ विख्यातो विप्रसत्तमः ॥
१४. झकनाडा
झषनर्तनमालोक्य परमानन्दमात्मनः ।जो बुद्धिमान ब्राह्म्ण मछलियों का नृत्य देखकर अपने मन में आनन्द का अनुभव करता था, वह झषनाटय (झखनाडा) नाम से स्मरण किया गया ॥
यो मेने मनसा धीमान झषनाट्य इति स्मृतः ॥
१५. रूंथला
चरूस्थाली करे कृत्वा प्रजपन्मंत्रमुत्त्मम ।जो चरूस्थाली को हाथ में लेकर मंत्र जपता हुआ अग्नि में आहुतियां दिया करता था वह चरुस्थाली (रुंथला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
अजोहवोत्तदा वन्दौ चरूस्थालीति विश्रतः ॥
१६. गोधला
गोधूली समये नित्यं यो भुनक्ति महामतिःजो महामति गोधूलि वेला में भोजन किया करता था, वह उस ब्रत के प्रभाव से गोधूली (गोधला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
स तद्व्रतप्रभावेण गोधूलिख्यातिमागतः ॥
१७. गोरसिया
गोतक्र यः पिवेन्नित्यं मन्यदन्नं न भज्ञयेत ।जो नित्य केवल गोतक (गाय की छाछ) पिया करता था और दूसरा अन्न नहीं खाता था, वह विप्र पुण्य कर्म से गोरस (गोरसिया) नाम से विख्यात हुआ ॥
गोरस इति ख्यातो विप्रः पुण्येन कर्मण ॥
१८. झुन्झुनाद
यज्ञस्यान्ते च यो नित्यं सामवेदं स्वरान्वितम ।यज्ञ समाप्ति पर जो सस्वर सामवेद का गान करता था, वह झुन्झुनाद (झुन्झुनादा) नाम से पुकारा जाने लागा
धुनोति ब्राह्म्णः श्रीमान झुन्झुनाद इतीरितः ॥
१९. भूमरा
भूगर्तान्यत्र कूत्रापि द्य्ष्ट्वा भरति यः सदा । भूभरः स तु विख्यातः सर्वत्र सुखदो द्विजः ॥
जहा कहीं पृथ्वी में गड्टों को देखकर जो सदा उनको पात देता था, सर्वत्र सुख देने वाला वह द्विज भूभर ( भूभरा ) नाम से बिख्यात हुआ२०. वटोटिया
वटमूलमुपाश्रित्य नैत्यकं कुरूते तु यः ।जो वरगद के नीचे बैठकर नित्य कर्म करता था, बह निरन्तर भूसुर वर्ग में वटोधा ( वटोटिया अथवा वट ओटिया ) नाम से विख्यात हुआ
वटोधा धै समाख्यातो भू सुरेसु निरन्तरम् ॥
२१. काछ्वाल
जो वेदी के कोने में बैठकर मंत्रोच्चारण पुर्वक आहुति दिया करता था, वह ऋषि श्रेष्ठ सर्वत्र कज्ञावान (काछवाल) नाम से विख्यात हुआ
२२. शिवोद्वाही (सोडवा)
शिवमुद्वहते कण्ठे नित्यं भक्त्या मुनिमर्हान ।जो महामुनि भक्ति पुर्वक नित्य कण्ठ में शिवजी को धारण करता था, वह शिवोद्वाही (सोडवा) नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ
शिवोद्वाहीति लोकोस्मिन तेन ख्यातो विदाम्बरः ॥
२३. भाटीवाडा
भट्टस्य रूपमास्थाय युध्यते यो निरन्त्म ।योद्धा का रूप धारण कर जो निरन्तर युद्ध किया करता था वह पण्डित भाटीवान (भाटीवाडा) नाम से पृथ्वी तल पर विख्यात हुआ ॥
तेनैव भुतले ख्यातो भाटीवानिति पंडितः ॥
२४. गोवला
जो प्रेम पूर्वक धर्मपरायण होकर नित्य गौओं का पालन करता था और जिसके गोओं का बल ही प्रधान था वह द्विजों द्वारा गोवल (गोवला) नाम से पुकारा गया ।
२५. वशीवाल
जो सब जनों को वश में कर निवास करता था, वह उसी प्रभाव से पृथ्वी पर वशीवान् (वशीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥
२६. मंगलहारा
२७. बोचीवाल
२८. धुगोलिया
ऋषियों में नाना प्रकार की गवेषणायें करने का प्रचलन था । इस अवटंक के प्रवर्तक ऋषि ने भी खगोल का प्रामाणिक अनुसन्धान किया था ।
२९. कुन्जवाडा
३०. परवाल
३१. हूचरा
३२. नवहाल
३३. वांठोलिया
वह उसको लोग वांठोलिक (वांठोलिया) कहते थे
३४. पीपलवा
वह विप्रवर पिप्पलवान (पीपलवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
३५. मुछावला
वह ऋषि द्विजों में श्मश्रुन (मुछ्वाल) नाम से विख्यात हुआ ॥
३६. तिवाडी
वह इस लोक में (तिवाडी) के नाम से विख्यात हुआ
२६. मंगलहारा
मनसा वचसा नित्यं सर्वेषामभिवाच्छति ।मन और वाणि से जो सब का भला चाहता था और सब का मंगल करता था वह मंगलाहर (मंगलहारा) नाम से विख्यात हुआ ।
मंगलाहरति योऽसौ तस्मान्मंगलहारक
२७. बोचीवाल
जो क्रान्तकर्मा धर्मान्धर्मात्मकः कविः ।जो क्रान्तकर्मा धर्मात्मा ऋषि यज्ञशाला में धार्मिक उपदेश दिया करता था, यह इसी कारण वोचीवान् (वोचीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥
तस्मादसौ च विख्यातो वोचीवानिति नामतः ॥
२८. धुगोलिया
दियो गोलमथालम्व्य वर्णितं व्योमविस्तरम् ।खगोल का अवलम्बन कर जिसने खगोल का विस्तार पूर्वक वर्णन किया, इसी कारण वह ज्ञानियों में श्रेष्ठ धूगोल (दुगोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥
तस्मादत्र समाख्यातो धूगोल इति विद्वरः ॥
ऋषियों में नाना प्रकार की गवेषणायें करने का प्रचलन था । इस अवटंक के प्रवर्तक ऋषि ने भी खगोल का प्रामाणिक अनुसन्धान किया था ।
२९. कुन्जवाडा
गुन्जावितानमाछाध वटस्य परितो बुधः ।जो विद्वान् गुन्जा के लता कुन्जों को बड पर चढाकर उनके नीचे निवास करता था, वह गुन्जावाट (गुन्जावडा) नाम से विख्यात हुआ ॥
तत्र चोवास यो धीरो गुन्जावाट इति श्रुतः ॥
३०. परवाल
प्रवालगौरवर्णश्र्च प्रवालैश्चैव मण्डितः ।जो ऋषि प्रवाल के समान गौर वर्ण था और जो प्रवालों से विभूषित और प्रवाल मालाधारी था उसका नाम लोगों ने प्रवाल (परवाल) रक्खा ॥
प्रवालमालयोपेतः प्रवालः स च कथ्यते
३१. हूचरा
हू हू नामानमाहूय चानद्दज्ञवेश्मनि ।यज्ञगृह में हू हू नामक गान्धर्व को बुलाकर जो गान्धर्व वेद का गायन करवाया करता था वह द्विज (हूचरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
चारयामास गान्धर्व तस्माद्चरको द्विज
३२. नवहाल
जाम्बूद्रुममयं नूत्नं हलं जप्राह यो द्विजजिसने जामुन का नया हल बना कर यज्ञ की भूमि को जोता वह ब्राह्मण नवहाल नाम से प्रसिद्ध हुआ
चकर्ष याज्ञिकीं भूमिं नवहाल प्रथां गत
३३. वांठोलिया
जो यज्ञ कि वेदी में रंग भरा कर गायत्री का जप किया करता था
वह उसको लोग वांठोलिक (वांठोलिया) कहते थे
३४. पीपलवा
अश्वत्थमूलमासाद्द तस्वैव फलमत्ति यः ।पीपल के पेड की जडो में बैठकर जो पीपल के ही फल खाया करता था
पिप्लवानिति ख्यातो भूमौ विप्रवरस्ततः ॥
वह विप्रवर पिप्पलवान (पीपलवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥
३५. मुछावला
श्मश्रुभिर्मुखमाच्छन्नो वर्तते यज्ञमण्डले ।दाढी मूछों से जिसका मुँह ढका रहता था
श्मश्रुलो हि समाख्यातः समुद्रान्तर्गतो भुवि ॥
वह ऋषि द्विजों में श्मश्रुन (मुछ्वाल) नाम से विख्यात हुआ ॥
३६. तिवाडी
जो तीन द्वार का मकान बनाकर उसमें गायत्री जपा करता था
वह इस लोक में (तिवाडी) के नाम से विख्यात हुआ
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